गीता प्रेस, गोरखपुर >> जिन खोजा तिन पाइया जिन खोजा तिन पाइयास्वामी रामसुखदास
|
1 पाठकों को प्रिय 376 पाठक हैं |
प्रस्तुत है पुस्तक जिन खोजा तिन पाइयाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।। श्रीहरि: ।।
नम्र निवेदन
उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु का तो निर्माण होता है, पर अनुत्पन्न तथा अविनाशी
तत्त्व का निर्माण नहीं होता, प्रत्युत खोज होती है। उसकी खोज के लिये
गहरा उतरकर विचार करना आवश्यक है; क्योंकि ‘जिन खोजा तिन पाइया,
गहरे पानी पैठ’। अत: ऐसे ही विचारपूर्ण लेखों का यह संग्रह
तत्त्वान्वेषी जिज्ञासुओं की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है।
आशा
है, परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज की अन्य पुस्तकों की भाँति इस पुस्तक
को भी जिज्ञासुजन पसन्द करेंगे और इसका अध्ययन-मनन करके लाभ उठायेंगे।
।। श्रीहरि: ।।
1. जिन खोजा तिन पाइया
परमात्मतत्त्व अद्वितीय है। उपनिषद् में आया है-
सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्।
(छान्दोग्य. 6/2/1)
‘हे सोम्य ! आरम्भ में यह एकमात्र
अद्वितीय सत् ही
था’।
तात्पर्य है कि वह तत्त्व अद्वैत है। उस तत्त्व में किसी भी तरह का भेद नहीं है। भेद तीन तरह का होता है- स्वगत भेद, सजातीय भेद और विजातीय भेद। जैसे, एक शरीर में भी पैर अलग हैं, हाथ अलग हैं, पेट अलग हैं, सिर अलग हैं-यह ‘स्वगत भेद’ है। वृक्ष-वृक्ष में कई भेद हैं, गाय-गाय में अनेक भेद हैं-यह ‘सजातीय भेद’ है। वृक्ष अलग हैं और गाय, भैंस, भेंड़ आदि पशु अलग हैं-यह स्थावर और जंगम का भेद ‘विजातीय भेद’ है। परमात्मतत्त्व ऐसा है कि उसमें स्वगत भेद है, न सजातीय भेद है और न विजातीय भेद है। परमात्मतत्त्व में कोई अवयव नहीं है, इसलिये उसमें ‘स्वगत भेद’ नहीं है। जीव भिन्न-भिन्न होने पर भी स्वरूप से एक ही हैं; अत: उसमें ‘सजातीय भेद’ भी नहीं है। वह परमात्मतत्त्व सत्तारूप से एक ही है।
जैसे, समुद्र में तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है। इस जल से भाप निकलती है। वह भाप बादल बन जाती है। बादलों से फिर वर्षा होती है। कभी ओले बरसते हैं। वर्षा का जल बह करके सरोवर, नदी-नाले में चला जाता है। नदी समुद्र में मिल जाती है। इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूप से, कभी भाप रूप से, कभी बूँद रूप से, कभी ओला रूप से, कभी नदी रूप से और कभी आकाश में परमाणु रूप से हो जाता है। समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी आदि में तो फर्क दीखता है, पर जल तत्त्व में कोई फर्क नहीं है। केवल जल-तत्त्व को ही देखें तो उसमें न समुद्र है, न भाप है, न बूँदें हैं, न ओले हैं, न नदी है, न तालाब है। ये सब जल की अलग-अलग उपाधियाँ हैं। तत्त्व से एक जल के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसी तरह सोने के अनेक गहने होते हैं। उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं। परन्तु तत्त्व से देखें तो सब सोना-ही-सोना है। पहले भी सोना था, अन्त में भी सोना रहेगा और बीच में अनेक रूप से दीखने पर भी सोना ही है। मिट्टी से घड़ा, हाँडी, ढक्कन, सकोरा आदि कोई चीजें बनती हैं। उन चीजों का अलग-अलग नाम, रूप, उपयोग आदि होता है। परन्तु तत्त्व से देखें तो उनमें एक मिट्टी के सिवाय कुछ भी नहीं है। पहले भी मिट्टी थी, अन्त में भी मिट्टी रहेगी और बीच में भी अनेक रूप से दीखने पर भी मिट्टी ही है। इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बाद में भी परमात्मा रहेंगे और बीच में संसार रूप से अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं-
‘वासुदेव: सर्वम्।’
यह संसार दीखता है, इसमें अलग-अलग शरीर हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण-ये तीन शरीर है। कोई स्थिर रहने वाला (स्थावर) शरीर है, कोई चलने-फिरने वाला (जंगम) शरीर है। स्थिर रहने वालों में पीपल का वृक्ष है, कोई नीमा का वृक्ष है, कोई आम का वृक्ष है, कोई करील का वृक्ष है। तरह-तरह के पौधे हैं, घास हैं। चलने-फिरने वालों में कई तरह के पशु-पक्षी, मनुष्य आदि हैं। ये सभी पृथ्वी पर हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश-ये पंच महाभूत हैं। इनसे आगे समष्टि अहंकार है। फिर महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) है। महत्तत्त्व के बाद फिर मूल प्रकृति है। ये सब मिलकर संसार हैं। संसार के आदि में भी परमात्मा हैं, अन्त में भी परमात्मा हैं और बीच में अनेक रूप से दीखते हुए भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं।
तात्पर्य है कि वह तत्त्व अद्वैत है। उस तत्त्व में किसी भी तरह का भेद नहीं है। भेद तीन तरह का होता है- स्वगत भेद, सजातीय भेद और विजातीय भेद। जैसे, एक शरीर में भी पैर अलग हैं, हाथ अलग हैं, पेट अलग हैं, सिर अलग हैं-यह ‘स्वगत भेद’ है। वृक्ष-वृक्ष में कई भेद हैं, गाय-गाय में अनेक भेद हैं-यह ‘सजातीय भेद’ है। वृक्ष अलग हैं और गाय, भैंस, भेंड़ आदि पशु अलग हैं-यह स्थावर और जंगम का भेद ‘विजातीय भेद’ है। परमात्मतत्त्व ऐसा है कि उसमें स्वगत भेद है, न सजातीय भेद है और न विजातीय भेद है। परमात्मतत्त्व में कोई अवयव नहीं है, इसलिये उसमें ‘स्वगत भेद’ नहीं है। जीव भिन्न-भिन्न होने पर भी स्वरूप से एक ही हैं; अत: उसमें ‘सजातीय भेद’ भी नहीं है। वह परमात्मतत्त्व सत्तारूप से एक ही है।
जैसे, समुद्र में तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है। इस जल से भाप निकलती है। वह भाप बादल बन जाती है। बादलों से फिर वर्षा होती है। कभी ओले बरसते हैं। वर्षा का जल बह करके सरोवर, नदी-नाले में चला जाता है। नदी समुद्र में मिल जाती है। इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूप से, कभी भाप रूप से, कभी बूँद रूप से, कभी ओला रूप से, कभी नदी रूप से और कभी आकाश में परमाणु रूप से हो जाता है। समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी आदि में तो फर्क दीखता है, पर जल तत्त्व में कोई फर्क नहीं है। केवल जल-तत्त्व को ही देखें तो उसमें न समुद्र है, न भाप है, न बूँदें हैं, न ओले हैं, न नदी है, न तालाब है। ये सब जल की अलग-अलग उपाधियाँ हैं। तत्त्व से एक जल के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसी तरह सोने के अनेक गहने होते हैं। उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं। परन्तु तत्त्व से देखें तो सब सोना-ही-सोना है। पहले भी सोना था, अन्त में भी सोना रहेगा और बीच में अनेक रूप से दीखने पर भी सोना ही है। मिट्टी से घड़ा, हाँडी, ढक्कन, सकोरा आदि कोई चीजें बनती हैं। उन चीजों का अलग-अलग नाम, रूप, उपयोग आदि होता है। परन्तु तत्त्व से देखें तो उनमें एक मिट्टी के सिवाय कुछ भी नहीं है। पहले भी मिट्टी थी, अन्त में भी मिट्टी रहेगी और बीच में भी अनेक रूप से दीखने पर भी मिट्टी ही है। इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बाद में भी परमात्मा रहेंगे और बीच में संसार रूप से अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं-
‘वासुदेव: सर्वम्।’
यह संसार दीखता है, इसमें अलग-अलग शरीर हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण-ये तीन शरीर है। कोई स्थिर रहने वाला (स्थावर) शरीर है, कोई चलने-फिरने वाला (जंगम) शरीर है। स्थिर रहने वालों में पीपल का वृक्ष है, कोई नीमा का वृक्ष है, कोई आम का वृक्ष है, कोई करील का वृक्ष है। तरह-तरह के पौधे हैं, घास हैं। चलने-फिरने वालों में कई तरह के पशु-पक्षी, मनुष्य आदि हैं। ये सभी पृथ्वी पर हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश-ये पंच महाभूत हैं। इनसे आगे समष्टि अहंकार है। फिर महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) है। महत्तत्त्व के बाद फिर मूल प्रकृति है। ये सब मिलकर संसार हैं। संसार के आदि में भी परमात्मा हैं, अन्त में भी परमात्मा हैं और बीच में अनेक रूप से दीखते हुए भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं।
मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियै:।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वजमंज्जसा।।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वजमंज्जसा।।
(श्रीमद्भा.11/13/24)
‘मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से जो कुछ
ग्रहण
किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ। अत: मेरे सिवाय दूसरा कोई भी नहीं है-यह
सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार कर
लें।’
देखने, सुनने और चिन्तन करने में जितना संसार आता है, वह मोहमूल ही है: क्योंकि उसकी वास्तविक और स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-
देखने, सुनने और चिन्तन करने में जितना संसार आता है, वह मोहमूल ही है: क्योंकि उसकी वास्तविक और स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं,
मोह मूल परमारथु नाहीं।।
मोह मूल परमारथु नाहीं।।
(मानस 2/92/4)
संसार पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा, केवल बीच में बना हुआ दीखता है। बनी
हुई (बनावटी) चीज निरन्तर मिट रही है और स्वत: सिद्ध परमात्मतत्त्व ही
अनेक रूपों से दीखता है।
परमात्मतत्त्व एक होते हुए भी अनेक रूपों से दीखता है और अनेक रूपों से दीखने पर भी स्वरूप से एक ही रहता है। कारण कि वह एक ही था, एक ही है और एक ही रहेगा। वह एक रूप से दीखे तो भी वही है और अनेक रूप से दीखे तो भी वही है। जल से बने भाप, बादल, बर्फ आदि सब जल ही है, सोने से बने गहने सोना ही है, मिट्टी से बने बर्तन मिट्टी ही है। इसी तरह जो अनेक रूपों में एक परमात्मतत्त्व को ही देखता है, वही तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, ज्ञानी-महात्मा होता है। कारण कि उसको यथार्थ ज्ञान हो गया, उसने परमात्मा को तत्त्व से जान लिया। तत्त्व से जानते ही वह परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है- ‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता 18/55) फिर एक तत्त्व ही शेष रह जाता है।
परमात्मतत्त्व पहले एक था, पीछे एक रहेगा और अभी अनेक रूपों से दीखता है-ये तीनों बातें काल (भूत, भविष्य और वर्तमान) को लेकर हैं। परन्तु उस तत्त्व में काल है ही नहीं। इसी तरह वहाँ न देश है, न क्रिया है, न वस्तु है, न व्यक्ति है, न घटना है, न परिस्थिति है, न अवस्था है। केवल एक अद्वैत तत्त्व है।
परमात्मतत्त्व एक होते हुए भी अनेक रूपों से दीखता है और अनेक रूपों से दीखने पर भी स्वरूप से एक ही रहता है। कारण कि वह एक ही था, एक ही है और एक ही रहेगा। वह एक रूप से दीखे तो भी वही है और अनेक रूप से दीखे तो भी वही है। जल से बने भाप, बादल, बर्फ आदि सब जल ही है, सोने से बने गहने सोना ही है, मिट्टी से बने बर्तन मिट्टी ही है। इसी तरह जो अनेक रूपों में एक परमात्मतत्त्व को ही देखता है, वही तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, ज्ञानी-महात्मा होता है। कारण कि उसको यथार्थ ज्ञान हो गया, उसने परमात्मा को तत्त्व से जान लिया। तत्त्व से जानते ही वह परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है- ‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता 18/55) फिर एक तत्त्व ही शेष रह जाता है।
परमात्मतत्त्व पहले एक था, पीछे एक रहेगा और अभी अनेक रूपों से दीखता है-ये तीनों बातें काल (भूत, भविष्य और वर्तमान) को लेकर हैं। परन्तु उस तत्त्व में काल है ही नहीं। इसी तरह वहाँ न देश है, न क्रिया है, न वस्तु है, न व्यक्ति है, न घटना है, न परिस्थिति है, न अवस्था है। केवल एक अद्वैत तत्त्व है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book